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उत्तराखंड के इन गांवों में नहीं मनाई गई 374 साल से होली, जानें क्या है कारण

उत्तराखंड के कुमाउं और गढ़वाल में भी होली का रंग जम रहा है. वहीं इन दोनों मंडलों के कुछ गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया जाता है. होली के दिन भी इन गांवों के लोगों की दिनचर्या सामान्य ही रहती है.

होली  का त्योहार नजदीक है. इस बार 8 मार्च को होली मनाई जाएगी. वहीं, उत्तराखंड के साथ साथ भारतवर्ष में होलिका दहन की तैयारियों में सभी लोग जुट गए हैं. उत्तराखंड के कुमाउं और गढ़वाल में भी होली का रंग जम रहा है. वहीं इन दोनों मंडलों के कुछ गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया जाता है. होली के दिन भी इन गांवों के लोगों की दिनचर्या सामान्य ही रहती है. रुद्रप्रयाग के तीन गांवों में तो विगत 374 वर्षों से देवी के कोप के डर से अबीर गुलाल नहीं उड़ाया जाता है.  अब आप इसे अंधविश्वास कहें या अपनी कुलदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी के प्रति ग्रामीणों की आस्था, लेकिन सच यह है कि इन तीन गांवों के लोग 15 पीढ़ियों से अपने विश्वास पर कायम हैं.उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि ब्लॉक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली,कुरझण और जौंदला गांव इस उत्साह और हलचल से कोसों दूर हैं. यहां न कोई होल्यार आता है और न ग्रामीण एक-दूसरे को रंग लगाते हैं. गांव वाले मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन बताते हैं. ग्रामीणों के अनुसार 374 सालों से यह परंपरा चली आ रही है क्योंकि देवी को रंग पसंद नहीं. 

बताया जाता है कि कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार क्वीली, कुरझण और जौंदला गांवों में आकर बसे गये थे. 15 पीढ़ियों से यहां के लोगों ने अपनी परंपरा को कायम रखा हुआ है. लोगों के अनुसार डेढ़ सौ वर्ष पहले कुछ लोगों ने होली खेली थी तो गांव में हैजा फैल गया था और कई लोगों की जान चली गयी थी. उसके बाद से दोबारा इन गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया गया. इसे लोग देवी का कोप मानते हैं. वहीं सीमांत पिथौरागढ़ जिले की तीन तहसीलों धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के करीब सौ गांवों में होली नहीं मनाई जाती है. यहां के लोग अनहोनी की आशंका में होली खेलने और मनाने से परहेज करते हैं. पिथौरागढ़ जिले में चीन और नेपाल सीमा से लगी तीन तहसीलों में होली का उल्लास गायब रहता है. पूर्वजों के समय से चला आ रहा यह मिथक आज भी नहीं टूटा है. मुनस्यारी के चौना, पापड़ी, मालूपाती, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, माणीटुंडी, पैकुटी, फाफा, वादनी सहित कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती है. चौना के बुजुर्ग बाला सिंह चिराल बताते हैं कि होल्यार देवी के प्रसिद्ध भराड़ी मंदिर में होली खेलने जा रहे थे. तब सांपों ने उनका रास्ता रोक दिया. इसके बाद जो भी होली का महंत बनता था या फिर होली गाता था तो उसके परिवार में कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती थी. डीडीहाट के दूनकोट क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि अतीत में गांवों में होली मनाने पर कई प्रकार के अपशकुन हुए. पूर्वजों ने उन अपशकुनों को होली से जोड़कर देखा. तब से होली न मनाना परंपरा की तरह हो गया.

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