राजनैतिक समीकरणों, ऊहापोहों और दोषारोपणों के बीच उत्तराखंड में भू-कानून का विषय लंबे समय से चर्चा का केंद्र रहा है। राज्य की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए, भूमि को बाहरी लोगों से बचाने और स्थानीय निवासियों के हितों की रक्षा करने के लिए सख्त भू-कानून की मांग समय-समय परकी जाती रही है।
स्वाधीनता आंदोलन और जमींदारी विनाश की भावना
भू-कानून की अवधारणा उत्तराखंड आज की नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति पर्याप्त नहीं होगी, जब तक कि किसानों को जमींदारों और सामंतों से भी छुटकारा नहीं मिल जाता। इसी विचारधारा के तहत 8 अगस्त 1946 को संयुक्त प्रांत की असेंबली ने जमींदारी समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया। तत्कालीन प्रीमियर गोविंद बल्लभ पंत की अध्यक्षता में एक 15 सदस्यीय जमींदारी उन्मूलन कमेटी का गठन किया गया, जिसमें हुक्मसिंह और चौधरी चरण सिंह भी शामिल थे। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद इस भावना को जमींदारों और रसूखदारों ने कमजोर कर दिया।
उत्तराखंड और धारा 371 की मांग
1990 के दशक में भी उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान, जहां अलग राज्य की मांग जोरों पर थी, वहीं उत्तर पूर्वी राज्यों की तरह धारा 371 के तहत संवैधानिक संरक्षण की भी मांग उठाई गई। आंदोलनकारियों का मानना था कि पहाड़वासियों की जमीन और सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के लिए विशेष कानूनी प्रावधान आवश्यक हैं। हालांकि, उत्तराखंड को यह विशेष दर्जा नहीं दिया गया।

उत्तराखंड में भू-कानून: प्रारंभिक प्रयास
राज्य निर्माण के बाद नारायण दत्त तिवारी और भुवन चंद्र खंडूड़ी सरकारों ने हिमाचल प्रदेश के भूमि सुधार कानूनों की तर्ज पर भू-कानून में संशोधन किए। 2008 में पारित संशोधन अधिनियम के तहत राज्य में बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीदने की सीमा तय की गई।
- पहले, कोई भी व्यक्ति 500 वर्ग मीटर तक जमीन बिना अनुमति के खरीद सकता था।
- 2007 में खंडूड़ी सरकार ने इस सीमा को घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया।
- 2003 से पहले के खातेदारों को 12 एकड़ तक कृषि भूमि खरीदने की अनुमति थी।
- 2018 में कानून में संशोधन किया गया कि यदि खरीदी गई भूमि का उपयोग निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया गया तो वह सरकार में निहित हो जाएगी।

विधानसभा में पारित 2025 का नया भू-कानून
2025 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था संशोधन विधेयक पेश किया। कैबीनेट में प्रस्ताव पास होने के बाद इसे विधानसभा के बजट सत्र में प्रस्तुत किया गया जहां सत्र के चौथे दिन भू-कानून को विधानसभा से मंजूरी मिल गई.
मुख्य प्रावधान:
- हरिद्वार और उधमसिंह नगर को छोड़कर उत्तराखंड के 11 जिलों में बाहरी लोग कृषि और बागवानी के लिए भूमि नहीं खरीद सकते।
- भूमि खरीद के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेनी होगी।
- जमीन खरीदते समय सब-रजिस्ट्रार को शपथ पत्र देना अनिवार्य होगा।
- भू-माफियाओं और अवैध कब्जे को रोकने के लिए सख्त प्रावधान।
भू-कानून की जरूरत क्यों?
उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति, पर्यावरण और कृषि भूमि को सुरक्षित रखने के लिए सख्त भू-कानून की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही है।
संस्कृति और पहचान की सुरक्षा:
- बाहरी लोगों द्वारा अंधाधुंध भूमि खरीद से स्थानीय संस्कृति और परंपराएं प्रभावित हो रही हैं। पहाड़ों में कृषि योग्य भूमि खरीद कर उन पर व्यावसायिक कार्य करने वाले भू माफियाओं पर कार्रलाई की अति आवश्यकता है।
- कृषि भूमि की रक्षा: प्रदेश में केवल 13% भूमि कृषि योग्य है, जिसे संरक्षित करना आवश्यक है।
- पर्यावरण संरक्षण: बाहरी निवेशकों द्वारा होटल, रिसॉर्ट और अन्य निर्माण के कारण वनों की कटाई बढ़ रही है।
हिमाचल की तुलना में उत्तराखंड
हिमाचल प्रदेश में 1972 से लागू धारा 118 के तहत बाहरी लोग कृषि भूमि नहीं खरीद सकते। वहां भूमि सुधार कानून के कारण स्थानीय लोगों की जमीनें सुरक्षित रहीं। वहीं, उत्तराखंड में लंबे समय तक सख्त भू-कानून न होने के कारण बाहरी लोग जमीन खरीदते रहे, जिससे पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की भूमि खत्म होती गई। उत्तराखंड में भू-कानून का मुद्दा केवल भूमि की खरीद-फरोख्त तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राज्य की पहचान, पर्यावरण और संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है। नए संशोधित कानून से भूमि खरीद की अनियंत्रित प्रक्रिया पर रोक लगने की उम्मीदें तो हैं साथ ही स्थानीय निवासियों के हित सुरक्षित काफी हद तक सुरक्षित हो सकेंगे। हालांकि, इस कानून को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए सतत निगरानी और सख्त क्रियान्वयन की आवश्यकता होगी।