उत्तराखंड अपने तीज-त्योहारों, लोक पंरपराओं, लोक पर्वों के लिए विश्वविख्यात है. यहां मनाए जाने वाले लोक पर्वों में प्रकृति के प्रति अनूठा प्रेम दिखता है. प्रकृति से प्रेम करना सिखाता एक ऐसा ही त्योहार हरेला पर्व है. उत्तराखंड के लोक पर्वों में से एक हरेला को गढ़वाल और कुमाऊं दोनों मंडलों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है. वैसे तो हरेला सालभर में तीन बार मनाया जाता है, लेकिन इनमें सबसे विशेष महत्व रखने वाला हरेला पर्व सावन माह के पहले दिन मनाया जाता है. लोक परंपराओं के अनुसार, पहले के समय में पहाड़ के लोग खेती पर ही निर्भर रहते थे. इसलिए सावन का महीना आने से पहले किसान ईष्टदेवों व प्रकृति मां से बेहतर फसल की कामना व पहाड़ों की रक्षा करने का आशीर्वाद मांगते थे.
उत्तराखंड की लोक संस्कृति, लोक कला को अलग पहचान दिलाने वाले गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डी.आर. पुरोहित बताते हैं कि हरेला सावन के पहले संक्राद के रूप में मनाया जाता है. कुमाऊं में इसे हरियाली व गढ़वाल क्षेत्र में मोल संक्राद के रूप में जाना जाता है. इस दौरान मोलू के वृक्ष धान-झंगोरे के खेतों में रोपे जाते थे, जिससे कि खेतों में कीड़े न लगे. मैदानी इलाकों में 4 जुलाई से ही सावन शुरू हो गया था,लेकिन आपको बता दें कि उत्तराखंड में हरेला पर्व से सावन मास की शुरुआत मानी जाती है. पहाड़ों में 17 जुलाई से सावन शुरू होगा. सावन महीने में हरेला पर्व का विशेष महत्व है, क्योंकि सावन भगवान शिव का सबसे प्रिय महीना है. उत्तराखंड को भगवान शिव की भूमि भी कहा जाता है. मान्यता है कि घर में बोया जाने वाला हरेला जितना बड़ा होगा, पहाड़ के लोगों को खेती में उतना ही फायदा देखने को मिलेगा. कई जगहों पर सामूहिक रूप से गांव के पंचायत पांडाल या स्थानीय देवता के मंदिर में हरेला बोया जाता है, तो कहीं घर-घर में भी हरेला बोया जाता है.