उत्तराखंड की संस्कृति (Uttarakhand Culture) अपनी अलग पहचान रखती है. यहां के लोकपर्व, त्यौहार, मेले, नृत्य-गीत और वस्त्राभूषण स्थानीय लोक जीवन के साथ अभिन्न रुप से जुड़े हैं. उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ Pithoragarh जिले के दारमा, व्यास व चैंदास, चमोली जनपद के नीती व माणा तथा उत्तरकाशी जिले की जाड़ घाटी के भोटिया जनजाति समुदाय द्वारा आज से छह दशक पूर्व भेड़ के ऊन से कई तरह के वस्त्रों का निर्माण किया जाता था. ऊन कातने के पश्चात तब परम्परागत हथकरघों से पंखी, शाल, चुटके, थुलमें व दन सहित अन्य उत्पाद तैयार किये जाते थे.
आज से लगभग 100 साल पहले कुमाऊं अंचल में स्थानीय संसाधनों से कपड़ा बुनने का कार्य होता था. उस समय लोग कपास की भी खेती करते थे. (ट्रेल 1928: एपैन्डिक्स) कुमाऊं में कपास की बौनी किस्म से कपड़ा बुना जाता था और इस काम को तब शिल्पकारों की उपजाति कोली किया करती थी. हाथ से बुना कपड़ा घर बुण के नाम से जाना जाता था. टिहरी रियासत में कपड़ा बुननने वाले बुनकरों को पुम्मी कहा जाता था. (भारत की जनगणना: 1931, भाग-1, रिपोर्ट 1933, ए.सी. टर्नर) उस समय यहां कुथलिया बोरा व दानपुर के बुनकर और गढ़वाल के राठ इलाके कुछ विशेष बुनकर स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले भीमल व भांग जैसे रेशेदार पौंधों से मोटे वस्त्रों का निर्माण भी किया करते थे. इस तरह के वस्त्रों को ‘बुदला‘ ‘भंगेला’ अथवा ’गाता’ कहा जाता था.

कुमाऊं व गढ़वाल अंचल (Garhwal and Kumaun)में प्रचलित तमाम पारम्परिक आभूषणों में काफी समानता मिलती है, अगर कुछ अन्तर है भी तो वह आंशिक रुप से सिर्फ इनके बनावट और नामों में दिखायी देता है. यहां प्रचलित आभूषणों को जेवर भी कहा जाता है. आभूषण प्रायः चांदी और सोने के बने होते हैं तथा माला में मनके के रुप में मूंगा व काली मोती के दाने पिरोये जाते हैं. गले में आभूषण के तौर पर सिक्कों अथवा मुहरों की माला पहनने की परम्परा यहां पुराने समय से ही चली आ रही है, जिसे आज भी कुछ समुदायों में देखा जा सकता है. इस आभूषण को यहां हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला या अठन्नीमाला के नाम से जाना जाता है. प्राचीन समाज में व्यापार विनिमय में धन की आवश्यकता होने और विपत्ति काल में उसकी महत्ता को देखते हुए ही इस तरह के आभूषणों को चलन में लाया गया होगा.
उत्तराखंड में चांदी और सोने के आभूषण बनाने वाले कारीगर सुनार कहलाते हैं. आभूषण निर्माण की परम्परागत कला को कुमाऊं में कुछ वर्मा परिवारों ने आज भी बखूबी से जीवित रखा हुआ है और इस कला को निरन्तर आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं. एक समय उत्तराखंड के पुराने नगर चम्पावत, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, पिथौरागढ़, काशीपुर, पुरानी टिहरी, श्रीनगर व बाड़ाहाट के सुनार अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के लिए विख्यात माने जाते थे.

उत्तराखंड में प्रचलित प्रमुख परम्परागत वस्त्र/परिधान
- आंगड़ि – महिलाओं द्वारा ब्लाउज की तरह पहना जाने वाला उपरी वस्त्र. सामान्यतः गरम कपड़े का बना होता है जिसमें जेब भी लगी होती है.
- कनछोप अथवा कनटोप – बच्चों व महिलाओं द्वारा सिर ढकने का सिरोवस्त्र. यह साधारणतः ऊन से बनाया जाता है. यह ठण्ड से कान व सिर को बचाता है.
- कुर्ता – एक तरह से कमीज का रूप. पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला यह वस्त्र कुछ ढीला और लम्बा होता है. इसे पजामें के साथ पहना जाता है.
- घाघर – कमर में बांधे जाने वाले इस घेरदार वस्त्र को महिलाएं पहनती हैं. सामान्यतः ग्रामीण परिवेश का यह वस्त्र पूर्व में सात अथवा नौ पल्ले का होता था. घाघरे के किनारे में में रंगीन गोट लगायी जाती है.
- झुगुलि – यह छोटी बालिकाओं (दस से बारह साल की उम्र तक) की परम्परागत पोशाक है. इसे मैक्सी का लघु रुप कहा जा सकता है. पहनने में सुविधाजनक होने के ही कारण इसे बच्चों को पहनाया जाता है.
- टोपी – सूती व अन्य कपड़ों से निर्मित टोपी को पुरुष व बच्चे समान तौर पर पहनते हैं. यहां दो प्रकार की टोपियां यथा गोल टोपी और गांधी टोपी का चलन है. सफेद,काली व सलेटी रंग की टोपियां ज्यादातर पहनी जाती हैं.
- धोति – महिलाओं की यह परम्परागत पोशाक है जो मारकीन व सूती कपडे़ की होती थी. इसमें मुख्यतः पहले इन पर छींटदार डिजायन रहती थी. अब तो केवल सूती धोती का चलन रह गया है. आज परम्परागत धोती ने नायलान, व जार्जट व अन्य तरह की साड़ियों का स्थान ले लिया है. पहले गांवो में पुरुष लोग भी सफेद धोती धारण करते थे. अब सामान्य तौर पर जजमानी वृति करने वाले लोग ही इसे पहनते हैं.
- सुरयाव – यह पैजामे का ही पर्याय है. परम्परागत सुरयाव आज के पैजामें से कहीं अधिक चैड़ा रहता था. यह गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनता था. तीन-चार दशक पूर्व तक लम्बे धारीदार पट्टी वाले सुरयाव का चलन खूब था.
- चूड़िदार पैजाम – पुराने समय में कुछ व्यक्ति विशेष चूडी़दार पजामा भी पहनते थे जो आज भी कमोवेश चलन में दिखायी देता है. यह पजामा थोड़ा चुस्त,कम मोहरी वाला व चुन्नटदार होता है.
- पंखी – क्रीम रंग के ऊनी कपड़े से बने इस वस्त्र को यात्रा आदि के दौरान जाड़ों में शरीर को ढकने के तौर पर प्रयोग किया जाता है. इसे स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किया जाता है.
- टांक – इसे सामान्यतः पगड़ी भी कहते हैं. इसकी लम्बाई दो मीटर से दस मीटर तक होती है. इसका रंग सफेद होता है.
- फतुई – इसे यहां जाखट, वास्कट के नाम से भी जाना जाता है. बिना आस्तीन व बंद गले की डिजायन वाले इस परिधान को कुरते व स्वेटर के उपर पहना जाता है. फतुई गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनती है. कुमाऊं गढवाल में इसे पुरुष जबकि जौनसार व रवाईं इलाके में दोनों समान रुप से पहनते हैं.
- रंग्वाली पिछौड़– कुमाऊं अंचल में शादी ब्याह, यज्ञोपवीत, नामकरण व अन्य मांगलिक कार्यों में महिलाएं इसे धोती अथवा साड़ी लहंगे के उपर पहनती हैं. सामान्य सूती और चिकन के कपड़े को पीले रंग से रंगकर उसके उपर मैरुन, लाल अथवा गुलाबी रग के गोल बूटे बनाये जाते हैं. इसके साथ ही इसमें विभिन्न अल्पनाएं व प्रतीक चिह्नों को उकेरा जाता है. पहले इन्हें घर पर बनाया जाता था परन्तु अब यह बाजार में बने बनाये मिलने लगे हैं.
उत्तराखंड में प्रचलित प्रमुख परम्परागत आभूषण/जेवर
- सिर व माथे पर पहने जाने वाले आभूषण – सीसफूल, मांगटिक, बेनी फूल आदि.
- नाक में पहने जाने वाले आभूषण – नथ, बुलाक,लौंग, फुल्ली, बीरा, बिड आदि.
- कान में पहने जाने वाले आभूषण – मुनड़, बाली, कुण्डल, झुमुक,टाॅप्स, लटकन, मुरकी आदि.
- गले में पहने जाने वाले आभूषण – गुलोबन्द, हुसुली, मटरमाला, हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला, अठन्नीमाला, सतलड़ी, चंद्रहार, जंजीर, झुपिया, मोहनमाला, कंठी, मूंगमाला, जंजीर, च्यूंच, पौंला आदि.
- हाथ में पहने जाने वाले आभूषण – धागुल, ठोके, चूड़ी, कंगन, पौंची, मुनड़ि,बाजुबंद, आदि
- कमर में पहने जाने वाले आभूषण – कमरबंद,लटकन, अतरदान, सुडी, कमरज्यौड़ि आदि.
- पैर में पहने जाने वाले आभूषण – चेनपट्टी, इमरती, बिच्छु, पाजेब, अमरिती,पायल, गिनाल आदि.
- पुरुषों द्वारा सामान्यतः यहां बहुत कम आभूषण पहने जाते हैं. बावजूद इसके जिन आभूषणों को पुरुषों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है उनमें अंगूठी परम्परागत आभूषण के तौर पर सर्वाधिक चलन में है. वर्तमान दौर अब में अधिकतर पुरुष कुण्डल, बाली, गले की जंजीर व कड़े आदि को भी आभूषणों के रुप में प्रयुक्त करने लगे हैं.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निःसन्देह उत्तराखण्ड में पुराने समय से प्रचलित तमाम परिधान और यहां के आभूषण अपनी कला और पारम्परिक विशेषताओं की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं और यहां की सांस्कृतिक विरासत की जीवंतता को बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं.